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कन्या की व्यथा

Samajik Vedna
Samajik Vedna
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कन्या की व्यथा
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सुकोमल लाज में डूबी होती है कन्या।
बोलने में मृदुभाषी होती है कन्या।।
घर से निकलती है लिये लाज ऑखों में।
बीत गये जीवन के पन्द्रह सावन लाज में।।
होने लगा रती का खेल जब हुई सोलह बरस की।
मादकता उडेलती रति,रत्ती में नहीं सेर में।।
बीत गयी किशोरावस्था सपनों के ढेर में।
देख लिया तीस सावन कैरियर के फेर में।।
कैरियर के नाम पर बीत रहे जवानी के दिन।
कैसे बचे लाज हया,मजबूर है आज की कन्या।।
अटठारह से इक्कीस का होता सुसय प्रणय का।
रखी अनिश्चितता विवाह के समय की।।
मिट जायेगी लाज हया, सुकोमल कन्या की।
कल तक मानी जाती थी देवी का रूप।।
आज अचरज हो रहा तरूणाई देखती नजरों पे।
जगत जननी होती लाज हया समाज की।।
स्वस्थ्य,सुन्दर,पढ़ी लिखी हो हमार जगत जननी।

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