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जन-जन को भरमाते फैला कर अपना छल।
खाकर हलुआ पूड़ी अपनी तोंद बढ़ाते।।
कथावाचक कह रहा बैठ कर सुन लो कथा।
देकर निज सारा धन दूर कर लो निजव्यथा।।
हम बैठे हित करने जान समझ लो निज हित।
सब कुछ दे जाओ तुम स्वर्ग-व्दार न मिले सेत।।
धर्म के मठाधीश जो बढा रहे फरेब को।
बनकर धर्म-सेवक लूट रहे जन-जन को।।
प्रपंची वचनों से करते शोषण जन का।
खुद वैभव में रह कर देते शिक्षा सादगी का।।
धर्म-तन्त्र सो रहा यौवन की गलियों में।
बचा क्षण तो सो गये दौलत के ढेरों में।।
भारत की युवा शक्ति ठोकर खाती रही भटक।
भोग विलासी शोषक जनता में रहा खटक।।
सत्य की ही जीत हो अधर्मी का नाश हो।
मनुज नतमस्तक हो जब प्रतिभा सम्मुख हो।।
धार्मिक कर्मकाण्डों का सम्पादन है समुचित।
जो आदिशक्ति के प्रति करें श्रद्धा विकसित।।
धर्म के नाम हो रहा व्यवसाय बन्द हो जाय।
तो देश की गरीबी का नाम ही मिट जाय।।
अंधविश्वास व कुरीतियों का धर्म में कोई स्थान न दिया जाय,तभी धर्म जन -कल्याण में सहायक सिद्ध होगा।
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