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मू्र्ति-विसर्जन एक समस्या

Samajik Vedna
Samajik Vedna
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मूर्ति-पूजक अपने अराध्य का प्रतीक बनाकर अराधना करता है। वह मूर्ति के समक्ष बैठकर या अपने आप को प्रस्तुत करके सच्ची श्रद्धा से अलौकिक शक्ति को नमन करता है। यह अच्छी बात है, धर्म के अस्तित्व के लिए आवश्क भी। अलौकिक सत्ता में विश्वास, उसकी उपासना करना, उसको पवित्र मानना एवं उससे दुःख से मुक्ति के लिए आश्वस्त होना, ये धर्म के मूल तत्व हैं। जिस प्रतीक को हम ईश्वर मानते हैं उसका बड़े उत्साह से निर्माण करते हैं। आकर्षित करने वाले परिधानों से सुसज्जित करते हैं। बड़े सम्मान के साथ हम हर्षित होकर देखते हैं। उसकी पूजा करते हैं।
लेकिन यह चिन्तन करनेकी बात है कि जिस अराध्य को हम निर्मित करते हैं और तिथि विशेष या क्षणिक अवसर विशेष के बाद उस प्रतीक को पानी में विसर्जित कर देते हैं। इसप्रकार एक तरफ हम उसको सर्वशक्तिमान मानते हैं,दूसरी तरफ उसको नष्ट कर देते हैं या घर से बाहर करके इधर-उधर रख देते हैं। यह तो पारलौकिक शक्ति का अनादर करना हुआ। मूर्तियों के अवशेष नदी,झील,तालाब के स्वच्छ जल को दूषित करे,यह कार्य तो समस्त जीव के लिए अहितकर है। जिस कार्य से प्राणी मात्र को हानि पहुँचे,वह कार्य धार्मिक कार्य नहीं हो सकता।
मूर्ति-विसर्जन से समाज में एक नई समस्या उत्पन्न हुई। जिसके निदान के लिए समाजिक संस्थाओं को आगे आना पड़ रहा है। यह तो वही बात हुई पहले खांई खोदो फिर उसके खतरे से बचने के लिए उसकी भराई करो। मूर्ति को पानी में विसर्जित की जाय या भूमि में दबा दिया जाय। इस कार्य को उचित कैसे माना जा सकता। भूमि में मल, मूत्र, मानव-शव,पशु-शव आदि दफनाये जाते हैं। मानव-शव अवशेष को सम्मान देने का विश्वास लेकर दफनाया जाता है। वातावरण को दूषित होने से बचाने के लिए पशु,जीव-जन्तु आदि का शव भूमि में दबा दिया जाताहै।
अतः हमें विचार करना होगा कि धर्म के वाह्य तत्व अर्थात धार्मिक कर्मकांड़ों को हम वहां तक सीमित रखें,जो प्राणियों के लिए हानिकारक न बनें।मूर्ति को नष्ट करना अपने अराध्य के प्रति यह श्रद्धा नहीं वाह्य आडम्बर है।
कुछ समय पूर्व तक एक क्षेत्र विशेष में एक दु्र्गा-मूर्ति या एक गणेश-मूर्ति में पूजा सम्पन्न हो जाती थी। अब प्रत्येक गली व चौराहा पर मूर्ति रख कर एक दिवस विशेष के बाद उसको विसर्जित करने की बाढ़ आ गयी है। ऐसे वाह्य आडम्बरों से दूर रह कर सच्ची श्रद्धा में मानव कल्याण,निज कल्याण है।

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