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माँ गंगा की पुकार
शान्ति न मिली मन को,करते अनेकों व्रत तीरथ।
याद कर पुरखों को, चिन्ता-मग्न हुए भगीरथ।
देखा फैली उदासी,देखा नीरस धन धाम।
अब है कोई मूल्य नहीं, जीवन हुआ अकारथ।।
देख के उदासी,की प्रतिज्ञा, पुरखे तारूँगा।
राजमुकुट राजमहल छोड़, विपिन को जाउँगा।
आज राजा नहीं, व्रती तपस्वी कहलाउँगा।
पंचतत्व-नश्वर देह को, सार्थक बनाउँगा।।
हिम पर्वत से निकली प्रलय-धार भयंकर।
भयभीत हुआ मानव, याद आये भोले शंकर।
सोच सोच के विनाश, हुए चिंतित भोले शंकर।
रोक जटा से प्रलय-धार, बन रछक आये शंकर।।
हिमगिरि से तब निकली एक निर्मल जल धारा।
सुगम दुर्गम पथ तय करती चली यह धारा।
राह चली कहती जाती यह गंगा धारा।
मैं हूँ मीठे जल की धारा, तारन हारा।।
उपासना के नाम पर मनमानी कर रहे।
तारण के नाम पर कूड़ा करकट भर रहे।
मूर्तियाँ लाख हम इसमें विसर्जित कर रहे।
अनवरत गंगा का आँचल कलुषित कर रहे।।
अमृत सम देख सरिता,होता प्रसन्न शरीर।
दूर होते मन के विकार,पीकर गंगा नीर।
ऐसा बदला काल, बदला शरीर स्वभाव।
घिर गया मन विकारों से छीण हुआ शरीर।।
नारों से कम नहीं होगी इसकी मलीनता।
कहने से नहीं करने से होगी स्वच्छता।
बन्द करोपूजा के नाम पर पुष्प अर्पण।
बन्द करो तारने के नाम पर शव तर्पण।।
दर्द है उर में हम मस्तक टटोल रहे।
हवन पूजन यज्ञ करके मन बहला रहे।
निर्मल होगी गंगा,नाले बन्द करने से।
अविरल होगी गंगा जल-धार बढ़ाने से।।
बहने दो बस बहने दो, अविरल जल-धारा।
कर लेती निर्मल निज को बहती जल-धारा।।
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